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सबहिं नचावत राम गोसाईं

भगवतीचरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :289
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3171
आईएसबीएन :9788171789092

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इसमें भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिघटनाओं का वर्णन हुआ है...

Sabahin Nachavat Ram Gosain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

भगवती बाबू ने अपने उपन्यासों में भारतीय इतिहास के एक लम्बे कालखंड का यथार्थवादी ढंग से अंकन किया है। स्वतन्त्रता-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर दौर के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिघटनाओं को उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली में अंकित किया है।

सबहिं नचावत राम गोसाई की विषयवस्तु आजादी के बाद के भारत में कस्बाई मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं के विस्तार और उनके प्रतिफलन पर रोचक कथासूत्रों के माध्यम से प्रकाश डालती है। राधेश्याम, नाहर सिंह, जबर सिंह, राम समुझ आदि चरित्रों के माध्यम से यह उपन्यास आजाद भारत के तेजी से बदलते राजनीतिक-सामाजिक चेहरे को उजागर करता है।


राधेश्याम : बुद्धि

 


ज्ञान किस समय प्राप्त होता है, किन परिस्थितियों में प्राप्त होता है और किस निमित्त से प्राप्त होता है, इसका न कोई नियम है और न कोई विधान है। बहरहाल इतना तै है कि लाला घासीराम को अनायास ही ज्ञान प्राप्त हो गया, और ज्ञान प्राप्त होते ही जैसे उनके जीवन की धारा बदल गई।

बात यह हुई कि उस दिन घासीराम के पौत्र, अर्थात् उनके एकमात्र सुपुत्र मेवालाल के पुत्ररत्न राधेश्याम का अन्नप्राशन संस्कार था। सुबह के समय स्नान करके उन्होंने अपने पौत्र को गोद में लेकर चाँदी की कटोरी में रखकर चाँदी के चम्मच से खीर चटाई और इसके उपलक्ष्य में मेवालाल ने उन्हें चाँदी का एक रुपया दिया। परिवार में यही परम्परा थी, और घासीराम ने अपने पुत्र को यही आदेश भी दिया था। लेकिन मेवालाल ने घर के पुरोहित जी को भी बुलवा लिया था बिना घासीराम से पूछे, और बिना घासीराम से पूछे उनके सामने ही मेवालाल ने पुरोहित जी को पाँच रुपये दे डाले। यह देखकर घासीराम के बदन में जैसे आग लग गई लेकिन बहुत प्रयत्न करके उस समय उन्होंने अपने क्रोध को शांत रखा। पुरोहित के जाने के बाद उन्होंने मेवालाल से कहा, ‘‘क्यों रे मेवा ! तूने पाधा जी को क्यों बुलाया था, और उन्हें पाँच रुपए क्यों दिए ?’’
‘‘धरमशास्तर में तो यही लिखा है बप्पा ! पाधा जी ने ऐसा ही बतलाया था।’’ मेवालाल ने अपने पिता की नजर से नजर बचाते हुए कहा।

पाधा जी को एक भद्दी गाली देते हुए घासीराम बोले, ‘‘वह तो लुटेरा है। हमसे पूछ लिया होता।’’
‘‘अब तुम बुढ़ाय रहे हो बप्पा ! पाधा जी को गाली देना तुम्हें शोभा नहीं देता। फिर यह रुपया तो हमने पैदा किया है, हम जैसे चाहेंगे वैसे खर्च करेंगे।

और इस बार घासीराम ने अपने पुत्र को गाली दी, ‘‘हरमाजादा कहीं का ! हमारे गल्ले से रुपया चुराकर कहता है तूने पैदा किया है !’’

मेवालाल को यह चोरीवाला आरोप अखर गया। असलियत यह थी कि मेवा लाल को जो जेब-खर्च मिलता था उसे जोड़कर उसने सौ रुपये कर लिए थे और इन रुपयों को ब्याज पर उठाकर उसने धंधा आरंभ कर दिया था जिसका घासीराम को पता नहीं था। मेवालाल ने आव देखा न ताव, एक भरपूर तमाचा अपने बाप के गाल पर मारा, ‘‘और बनाओगे चोर ! दो सौ रुपया बाजार में फैले हैं हमारे-पच्चीस-तीस रुपया महीना की आमदनी है। साल-भर में हजार रुपया न पैदा कर लिया तो हमारा नाम मेवालाल नहीं।’’

क्रम बदल रहा था। पहले घासीराम मेवालाल को मारते थे और मेवालाल घासीराम को गाली देता था। उसके बाद मेवालाल बड़ा हुआ, और एक दिन जब घासीराम ने उसे तमाचा मारा तब मेवालाल ने भी उलटकर घासीराम के तमाचा मारा था। उस दिन से घासीराम ने मेवालाल पर हाथ उठाना बंद कर दिया, वह सिर्फ मेवालाल को गाली देकर संतोष कर लेते थे और उत्तर में मेवालाल भी गाली ही देता था। उस दिन पहली बार मेवालाल ने गाली के जवाब में हाथ उठाया था।

इसके बाद लाला घासीराम चुपचाप घर से दुकान चले गए। मेवालाल की अवस्था करीब सत्ताईस-अट्ठाईस साल की थी, गठा हुआ बदन। और लाला घासीराम पचास साल के दुबले-पतले आदमी, पेट के मरीज। दुकान पहुँचते-पहुँचते उन्होंने तै कर लिया कि अब आगे से वह अपने लड़के को गाली नहीं देंगे। दुकान खोलने के बाद उनकी दुकान में पहला ग्राहक आया जग्गा लुहार। उसे पाव भर हल्दी लेनी थी, और आदत के अनुसार घासीराम ने डाँडी मारी। जग्गा ठठाकर हँसा, ‘‘लाला, जिस के लिए तुम यह सब पाप कर रहे हो उसी ने कुछ देर पहले तुम्हारे तमाचा मारा था। तो घर में पिटोगे और भगवान के यहाँ नरक भोगोगे।’’

घासीराम ने हल्दी की दो गाँठें और चढ़ाकर पूछा, ‘‘तो तुमने देखा था ?’’
‘‘हाँ, हम अपनी छत पर थे। तो हमने सब बातें सुनीं। अरे अब बुढ़ाए गये हो तो भगवान भजन करो और अपना परलोक सम्हालो। तुम्हारे पाप मेवा के सिर पर और मेवा जो पाप करेगा वह राधे के सिर पर। तो तुम अपने पाप रोको। मेवा के पाप खुद रुक जाएँगे और राधे की गति सुधर जाएगी।’’ और यह कहकर जग्गा चलता बना था।

घासीराम से अब दुकान पर नहीं बैठा गया, उन्होंने दुकान बढ़ाई और घर वापस आ गए। अपनी कोठरी बंद करके वह लेट गए और शाम के वक्त जब मेवालाल शहर का चक्कर लगाकर लौटा, घासीराम ने उसे बुलाया। गंभीर स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘बेटा मेवा, सुबह तुमने कहा था कि हम अब बुढ़ाए गए हैं, तो आज हम दिन-भर सोचते रहे। और अब हमने यह तै कर लिया है कि हम तीरथ यात्रा पर निकल जाएँ। तुम सयाने हो गए हो, तुम्हारी लुगाई है, तुम्हारे बच्चा है। तुम्हारी अम्माँ जिंदा होती तो बात दूसरी थी, अब हम अकेले। तो अब हमारा भगवान में लौ लगाने का बखत आय गया है। दुनिया में जितने पाप किए गए हैं उन्हें धोने का एक ही उपाय हमारे धरमशास्तर में लिखा है—तीरथयात्रा।’’

अपने पिता के इस निर्णय से मेवालाल स्तब्ध-सा रह गया, उसने करुण स्वर में कहा, ‘‘बप्पा ! हमें छमा कर देव। क्या बतावें हमें गुस्सा आ गया था तो हमारा हाथ उठ गया। तुम्हारी गाली देने की आदत बड़ी खराब है। लेकिन अब हम अपने गुस्से को रोकेंगे, चाहे तुम हमें जान से ही क्यों न मार डालो।’’

अपने पुत्र की इस क्षमा-याचना से घासीराम गद्गद हो गए, उनकी आँखों में आँसू छलक आए, ‘‘नहीं बेटा, हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है, पापी तो हम ही है, और पाप काटने का एक ही उपाय है तीरथ-बरत ! तो कल दुपहर की गाड़ी से हम तीरथ पर निकल जाएँगे—यह हमने निश्चय कर लिया है। तुम सयाने हो गए हो, दुकान और घर का कामकाज तुम सम्हाल लोगे।’’
घासीराम की पुत्रवधू दुलारी आँगन में खड़ी हुई यह बातचीत सुन रही थी, अब वह लपककर आई और ससुर के पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘हम लोगन की खता माफ करो बप्पा ! आराम से घर मॉ रहो और कामकाज सम्हालो। बिना तुम्हारे हम लोग कैसे रहेंगे ?’’

घासीराम कुछ देर तक सोचते रहे। एकदम तीर्थयात्रा के संकल्प के प्रभाव और पुत्रवधू के रुख में इतना परिवर्तन ! तीर्थयात्रा से तो उन्हें निश्चय ही स्वर्ग मिलेगा। और मन ही मन वह अपने संकल्प पर अडिग हो गए। उन्होंने केवल इतना कहा, ‘‘अब तो तै कर लिया है। अब कल सुबह बात करेंगे इस समय हम राधाकृष्ण के मंदिर जाय रहे हैं, आरती का समय हो रहा है।’’ और घासीराम चले गए।

लाला घासीराम के मुहल्ले में एक मात्र परचून की दुकान थी। नाटे कद के, दुबले-से और अत्यंत निरीह दिखनेवाले आदमी, लाला घासीराम मुहल्ले-पड़ोसवालों के लिए विनम्रता और मिठबोलेपन के औतार थे। मुहल्ले-भर के लोग जानते थे कि घासीराम के मुकाबले के डाँड़ी मारनेवाले आदमी भगवान इस दुनिया में इने-गिने ही पैदा कर पाते हैं। पंद्रह छटाँक माल को सेर-भर तौल देना उसका अटूट नियम था, लेकिन कोई अनजाना बाहरी आदमी फँस जाए तो तेरह या चौदह छटाँक का सेर तुल जाया करता था और अगर किसी ने उनका कम तौलना पकड़ लिया या टोक दिया तो मजाल है कि लाला घासीराम बुरा मान जाएँ। उसी वक्त उन्होंने अपनी गलती मान ली—‘‘क्या बताएँ हाथ काँप गया, लेकिन अब जो तुल गया वह तुल गया, अगली दफ़ा कमी पूरी कर देंगे।’’ और अगर किसी बिगड़े दिल के ग्राहक ने लाला घासीराम के दो-एक तमाचे भी जड़ दिए तो लाला घासीराम ने कोई शिकायत नहीं की। अगली दफ़ा उन्होंने फिर डाँड़ी मारी और उसी मीठे पन के साथ पेश आए।

लाला घासीराम मुहल्ले-पड़ोसवालों के सामने जितने विनम्र और मिठ-बोले थे, अपने घर में वह उतने ही क्रोधी स्वभाव के और गाली देनेवाले थे। उनकी पत्नी एक साल पहले पुराने बुखार से बीमार होकर बिना किसी इलाज के लाला घासीराम की गाली-गलौज से मुक्ति पा गई थी, उनकी पुत्रवधू दुलारी उनकी गाली-गलौज से बेहद परेशान थी।

लाला घासीराम ने तीर्थयात्रा का जो निर्णय लिया उससे उनके पुत्र और पुत्रवधू दोनों बहुत प्रसन्न या दुखी तो नहीं थे, लेकिन आश्चर्यचकित अवश्य थे।

सुबह जब मेवालाल सोकर उठा, उसने देखा कि उसके बप्पा ने तीर्थयात्रा की सब तैयारी कर रखी है। घासीराम ने मेवालाल को बुला भेजा। अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मेवालाल आँखों में आँसू भरे हुए अपने पिता के पास पहुँचा घासीराम ने अपनी जमा-जथा मेवालाल के हाथ सहेजी, दस हजार रुपया नकद और दस हजार रुपए का सोना-चाँदी। चारो धाम की यात्रा का कार्यक्रम था उनका, सब तीर्थ करके अंत में बदरी-केदार की यात्रा थी जहाँ से दस-पाँच प्रतिशत लोग ही जीवित लौटते थे।

और इस रकम के साथ घासीराम ने एक टीन का बक्सा मेवालाल को सौंपते हुए कहा, ‘‘इस बक्से में भगवान को अर्पित रुपया है जिससे हम भगवान का मन्दिर बनवाना चाहते थे। लेकिन अब हम भगवान के बड़े-बड़े मंदिरों का दर्शन करने जाय रहे हैं, तो यह बक्सा तुम्हें सौंप रहे हैं। कोई ठिकाना नहीं कि हम जिंदा ही लौट आएँगे। पचास साल के ऊपर उमर हो गई है।’’
यह बात सन् 1920-21 की है जब सोना बीस रुपये तोला बिकता था, गेहूँ रुपए का पंद्रह सेर बिकता था, घी रुपए का सेर या सवा सेर बिकता था और चीनी तीन आने सेर बिकती थी। और इस सबके साथ आदमी पचास-पचास साल की उम्र में बूढ़ा हो जाता था और साठ-पैंसठ की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते चल बसता था।
अपनी बात कहते-कहते घासीराम भावुक हो उठे, ‘‘बेटा मेवा, जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। अगर हम एक साल तक वापस न लौटे तो समझ लेना कि हम गोलोकवासी हो गए हैं। तब इस बक्से का ताला तोड़कर इसकी रकम निकाल लेना, और हमारे नाम से एक मंदिर बनवा देना।’’ और कुछ रुककर उन्होंने फिर कहा, ‘‘लेकिन यह भगवान के नाम का रुपया तुम खुद न हड़प कर जाओगे, इसका वचन दो।’’

मेवालाल ने बड़े भक्ति-भाव से कहा, ‘‘हम बचन देते हैं बप्पा !’’
घासीराम बोल उठे, ‘‘हमें तुम्हारे बचन का कोई भरोसा नहीं, तुम बड़े झूठे और हराममजादे हो।’’
मेवालाल ने इस बार अपने पिता की गाली का बुरा नहीं माना, वियोग के क्षण में उसकी आँखों में आँसू भर कर कहा, ‘‘बप्पा ! तुम निसाखातिर रहो। भगवान के साथ हम कोई दगा नहीं करेंगे।’’
‘‘नहीं, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं, राधे की कसम खानी होगी तुम्हें।’’
और भावावेश में आकर मेवालाल ने राधेश्याम की कसम खा ली।
दोपहर की गाड़ी से घासीराम काशी के लिए रवाना हो गए।



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